गूजरी महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किरिआचार करहि खटु करमा इतु राते संसारी ॥ अंतरि मैलु न उतरै हउमै बिनु गुर बाजी हारी ॥१॥ मेरे ठाकुर रखि लेवहु किरपा धारी ॥ कोटि मधे को विरला सेवकु होरि सगले बिउहारी ॥१॥ रहाउ ॥ सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥ बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥२॥ अठसठि मजनु करि इसनाना भ्रमि आए धर सारी ॥ अनिक सोच करहि दिन राती बिनु सतिगुर अंधिआरी ॥३॥ धावत धावत सभु जगु धाइओ अब आए हरि दुआरी ॥ दुरमति मेटि बुधि परगासी जन नानक गुरमुखि तारी ॥४॥१॥२॥ {पन्ना 495}
पद्अर्थ: किरिआचार = क्रिया आचार, धार्मिक रस्मों का करना, कर्म काण्ड। करहि = करते हैं। खटु = छे। खटु करमा = छे धार्मिक काम (स्नान, संध्या, जप, हवन, अतिथि पूजा, देव पूजा)। इतु = इस आहर में। संसारी = दुनियादार।1।
ठाकुरु = हे ठाकुर! धारी = धार के। कोटि = करोड़ों। मधे = बीच। होरि = (‘होर’ का बहुवचन) अन्य। बिउहारी = व्यापारी, सौदेबाज, मतलबी।1। रहाउ।
सभि = सारे। सोधे = बिचारे। मुकति = (माया के मोह से) खलासी। कोऊ = कोई भी। करि बीचारी = विचार करके।2।
अठसठि = अढ़सठ। मजनु = स्नान, चॅुभी। भ्रमि = भटक भटक के। धर = धरती। सोच = सुच, शारीरिक पवित्रता। करहि = करते हैं। अंधिआरी = अंधेरा।3।
धावत = भटकते हुए, दौड़ते हुए। धाइओ = भटक लिया। अब = अब। हरिदुआरी = हरी के द्वार, हरी के दर पर। मेटि = मिटा के। बुधि = (सद्) बुद्धि। परगासी = रौशन कर दी। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। तारी = पार लंघा लेता है।4।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभू! कृपा करके मुझे (दुर्मति) से बचाए रख। (मैं देखता हूँ कि) करोड़ों मनुष्यों में से कोई विरला मनुष्य (तेरा सच्चा) भगत है (कुमति के कारण) और सारे मतलबी ही हैं (अपने मतलब के कारण देखने को धार्मिक काम कर रहे हैं)।1। रहाउ।
हे भाई! दुनियादार मनुष्य कर्म-काण्ड करते हैं, (स्नान, संध्या आदि) छे (प्रसिद्ध निहित धर्मिक) कर्म कमाते हैं, इन कर्मों में ही ये लोग व्यस्त रहते हैं। पर इनके मन में टिकी हुई अहंकार की मैल (इन कामों से) नहीं उतरती। गुरू की शरण पड़े बिना वह मानस जनम की बाजी हार जाते हैं।1।
हे भाई! सारे शास्त्र,वेद, सारी ही स्मृतियां, ये सारे हमने पड़ताल के देख लिए हैं, ये सारे भी यही एक बात पुकार-पुकार के कह रहे हैं कि गुरू की शरण आए बिना कोई मनुष्य (माया के मोह आदि से) निजात नहीं पा सकता। हे भाई! तुम भी बेशक मन में विचार करके देख लो (यही बात ठीक है)।2।
हे भाई! लोग अढ़सठ तीर्थों के स्नान करके, और, सारी धरती पे घूम के आ जाते हैं, दिन-रात और अनेकों पवित्रता के साधन करते रहते हैं। पर, गुरू के बिना उनके अंदर माया के मोह का अंधकार टिका रहता है।3।
हे नानक! (कह–) भटक-भटक के सारे जगत में भटक के जो मनुष्य आखिर परमात्मा के दर पर आ गिरते हैं, परमात्मा उनके अंदर से दुर्मति मिटा के उनके मन में सद्-बुद्धि का प्रकाश कर देता है, गुरू की शरण पा के उनको (संसार-समुंद्र से) पार लंघा देता है।4।1।2।