धर्म : वडहंसु महला ३ ॥ रसना हरि सादि लगी सहजि सुभाए ॥ मनु त्रिपतिआ हरि नामु धिआए ॥१॥ सदा सुखु साचै सबदि वीचारी ॥ आपणे सतगुर विटहु सदा बलिहारी ॥१॥ रहाउ ॥ अखी संतोखीआ एक लिव लाए ॥ मनु संतोखिआ दूजा भाउ गवाए ॥२॥ देह सरीरि सुखु होवै सबदि हरि नाए ॥ नामु परमलु हिरदै रहिआ समाए ॥३॥ नानक मसतकि जिसु वडभागु ॥ गुर की बाणी सहज बैरागु ॥४॥७॥
अर्थ: जिस मनुष्य की जिव्हा परमात्मा के नाम के स्वाद में लगती है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक जाता है, प्रभु-प्रेम में जुड़ जाता है। परमात्मा के नाम सिमर कर उस का मन (माया के तृष्णा की तरफ से) भर जाता है ॥१॥ जिस के सदा-थिर प्रभु की सिफत सलाह वाले शब्द में जुड़ने से विचारवान हो जाते हैं, और सदा आतमिक आनंद मिला रहता है, मैं अपने उस गुरु से सदा कुर्बान जाता हूँ ॥१॥ रहाउ ॥
(हे भाई! गुरु की शरण की बरकत से) एक परमात्मा में सुरत जोड़ के मनुष्य की आँखें (पराये रूप की तरफ) से भर जाती हैं, और माया के प्यार को दूर कर के मनुष्य का मन (तृष्णा की तरफ से) भर जाता है ॥२॥ शब्द की बरकत से परमात्मा के नाम में जुड़े शरीर में आनन्द पैदा होता है, और आत्मिक जीवन की सुगंधी देने वाला हरी-नाम मनुष्य के हृदय में सदा टिका रहता है ॥३॥ नानक जी! जिस मनुष्य के माथे पर उच्ची किस्मत जागती है, वह मनुष्य गुरू की बाणी में जुड़ता है जिस से उस के अंदर आत्मिक अडोलता पैदा करने वाला वैराग उपजता है ॥४॥७॥