सोरठि महला ५ ॥ गुण गावहु पूरन अबिनासी काम क्रोध बिखु जारे ॥ महा बिखमु अगनि को सागरु साधू संगि उधारे ॥१॥ पूरै गुरि मेटिओ भरमु अंधेरा ॥ भजु प्रेम भगति प्रभु नेरा ॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु निधान रसु पीआ मन तन रहे अघाई ॥ जत कत पूरि रहिओ परमेसरु कत आवै कत जाई ॥२॥ जप तप संजम गिआन तत बेता जिसु मनि वसै गुोपाला ॥ नामु रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ता की पूरन घाला ॥३॥ कलि कलेस मिटे दुख सगले काटी जम की फासा ॥ कहु नानक प्रभि किरपा धारी मन तन भए बिगासा ॥४॥१२॥२३॥
अर्थ: (हे भाई! पूरे गुरू की शरण पड़ो। जो मनुष्य पूरे गुरू की शरण पड़ा) पूरे गुरू ने (उसका) भरम मिटा दिया, (उसका माया के मोह का) अंधेरा दूर कर दिया। (हे भाई! तू भी गुरू की शरण पड़ कर) प्रेमा भक्ति से प्रभू के भजन किया कर, (तुझे) प्रभू अंग-संग (दिख जाएगा)। रहाउ।(हे भाई! पूरे गुरू की शरण पड़ कर) सर्व-व्यापक नाश-रहित प्रभू के गुण गाया कर। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है गुरू उसके अंदर से आत्मिक मौत लाने वाले) काम-क्रोध (आदि की) जहर जला देता है। (ये जगत विकारों की) आग का समुंद्र (है, इस में से पार लांघना) बहुत कठिन है (सिफत सालाह के गीत गाने वाले मनुष्य को गुरू) साध-संगति में (रख के इस समुंद्र में से) पार लंघा देता है।1।हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे रसों का खजाना है, जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर इस) खजाने का रस पीता है, उसका मन उसका तन (माया के रसों की ओर से) तृप्त हो जाते हैं। उसे हर जगह परमात्मा व्याप्त दिख पड़ता है। वह मनुष्य फिर ना पैदा होता है ना मरता है।2।हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर नाम रत्न पा लिया, उसकी (आत्मिक जीवन वाली) मेहनत कामयाब हो गई। (गुरू के द्वारा) जिस मनुष्य के मन में सृष्टि का पालनहार आ बसता है, वह मनुष्य असल जप-तप-संयम के भेद को समझने वाला हो जाता है वह मनुष्य आत्मिक सूझ का ज्ञाता हो जाता है।3।हे नानक! कह– जिस मनुष्य पर प्रभू ने मेहर की (उसको प्रभू ने गुरू मिला दिया, और) उसका मन उसका तन आत्मिक आनंद से प्रफुल्लित हो गया। उस मनुष्य की जमों वाली जंजीरें काटी गई ( उसके गले से माया के मोह की फाही कट गई जो आत्मिक मौत ला के उसे जमों के वश में करती है), उसके सारे दुख-कलेश-कष्ट दूर हो गए।4।12।23।