सलोकु मः ३ ॥ नानक नामु न चेतनी अगिआनी अंधुले अवरे करम कमाहि ॥ जम दरि बधे मारीअहि फिरि विसटा माहि पचाहि ॥१॥ मः ३ ॥ नानक सतिगुरु सेवहि आपणा से जन सचे परवाणु ॥ हरि कै नाए समाए रहे चूका आवणु जाणु ॥२॥ पउड़ी ॥ धनु संपै माइआ संचीऐ अंते दुखदाई ॥ घर मंदर महल सवारीअहि किछु साथि न जाई ॥ हर रंगी तुरे नित पालीअहि कितै कामि न आई ॥ जन लावहु चितु हरि नाम सिउ अंति होइ सखाई ॥ जन नानक नामु धिआइआ गुरमुखि सुखु पाई ॥१५॥
हे नानक ! अंधे अज्ञानी नाम सिमरन नहीं करते, और और काम करते हैं, (फल यह निकलता है, कि) यमद्वार पर बंधे मार खाते है और फिर (विकार-रूप) विष्ठा में जलते है। हे नानक! जो मनुख अपने सतगुरु की बताई कार करते हैं वह मनुख सच्चे और कबूल हैं; वह हरी के नाम में लीन रहते हैं और उनका जन्म-मरण खत्म हो जाता है।२। धन,दौलत और माया एकत्र करते हैं, परन्तु आखिर को दुखदाई होता है; घर मंदिर और महल बनातें हैं, परन्तु कुछ साथ नहीं जाता; कई रंगों के घोड़े सदा पालतें हैं, पर किसी काम नहीं आते। हे भाई सज्जनों ! हरी के नाम से मन जोड़ो, जो आखिर में साथी बने। हे दास नानक ! जो मनुख नाम सुमिरन करता है, वह सतगुरु के सन्मुख रह के सुख पाता है।१।