धनासरी महला ३ ॥ नावै की कीमति मिति कही न जाइ ॥ से जन धंनु जिन इक नामि लिव लाइ ॥ गुरमति साची साचा वीचारु ॥ आपे बखसे दे वीचारु ॥१॥ हरि नामु अचरजु प्रभु आपि सुणाए ॥ कली काल विचि गुरमुखि पाए ॥१॥ रहाउ ॥ हम मूरख मूरख मन माहि ॥ हउमै विचि सभ कार कमाहि ॥ गुर परसादी हंउमै जाइ ॥ आपे बखसे लए मिलाइ ॥२॥ बिखिआ का धनु बहुतु अभिमानु ॥ अहंकारि डूबै न पावै मानु ॥ आपु छोडि सदा सुखु होई ॥ गुरमति सालाही सचु सोई ॥३॥ आपे साजे करता सोइ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ जिसु सचि लाए सोई लागै ॥ नानक नामि सदा सुखु आगै ॥४॥८॥
अर्थ :- हे भाई! यह नहीं बताया जा सकता कि परमात्मा का नाम किस मुल्य से मिल सकता है और यह नाम कितनी ताकत वाला है। जिन मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में सुरत जोड़ी हुई है वह क़िस्मत वाले हैं। जो मनुष्य कभी उकाई ना खाने वाली गुरू की मत ग्रहण करता है, वह मनुष्य सदा-थिर प्रभू के गुणों की विचार (अपने अंदर) वसाता है। परन्तु यह विचार प्रभू उस को ही देता है जिस ऊपर आप ही बख़्श़श करता है ॥१॥ हे भाई! परमात्मा का नाम हैरान करने वाली ताकत वाला है। (परन्तु यह नाम) प्रभू आप ही (किसी वड-भागी को) सुनाता है। इस झगड़ों-भरे जीवन-समय में वही मनुष्य हरी-नाम प्राप्त करता है जो गुरू के सनमुख रहता है ॥१॥ रहाउ ॥ हे भाई! (अगर हम अपने) मन में (ध्यान के साथ विचारें तो इस हऊमै के कारण) हम निरोल मूर्ख हैं। क्योंकि हम जीव (अपना) प्रत्येक काम हऊमै के आसरे ही करते हैं, यह हऊमै (हमारे अंदर से) गुरू की कृपा के साथ ही दूर हो सकती है। (गुरू भी उसे को) मिलाता है जिस ऊपर प्रभू आप ही मेहर करता है ॥२॥ (हे भाई! यह दुनिया वाला) माया का धन (मनुष्य के मन में) बड़ा अहंकार (पैदा करता है)। और, जो मनुष्य अहंकार में डूबा रहता है वह (प्रभू की हज़ूरी में) आदर नहीं पाता। हे भाई! आपा-भाव छोड़ कर सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। हे भाई! मैं तो गुरू की मत ले कर उस सदा-थिर प्रभू की सिफ़त-सालाह करता रहता हूँ ॥३॥ हे भाई! वह करतार आप ही (सारी सृष्टि को) पैदा करता है, उस के बिना कोई ओर (इस प्रकार की अवस्था वाला) नहीं है। वह करतार जिस मनुष्य को (अपने) सदा-थिर नाम में जोड़ता है, वही मनुष्य (नाम-सिमरन में) लगता है। हे नानक जी! जो मनुष्य नाम में लगता है उस को सदा ही आत्मिक आनंद बना रहता है (इस लोक में भी, और) परलोक में भी ॥४॥८॥