🙏🌹 हुकमनामा श्री हरमंदिर साहिब अमृतसर 🙏🌹
4 मई 2024 शनिवार 22 वैसाख (संवत नानकशाही 556)
अज्ज दा अमृत वेले दा हुकमनामा जी सचखंड श्री दरबार साहिब
अंग:- 737
सूही महला ५ ॥
धनु सोहागनि जो प्रभू पछानै ॥ मानै हुकमु तजै अभिमानै ॥ प्रिअ सिउ राती रलीआ मानै ॥१॥ सुनि सखीए प्रभ मिलण नीसानी ॥ मनु तनु अरपि तजि लाज लोकानी ॥१॥ रहाउ ॥ सखी सहेली कउ समझावै ॥ सोई कमावै जो प्रभ भावै ॥ सा सोहागणि अंकि समावै ॥२॥ गरबि गहेली महलु न पावै ॥ फिरि पछुतावै जब रैणि बिहावै ॥ करमहीणि मनमुखि दुखु पावै ॥३॥ बिनउ करी जे जाणा दूरि ॥ प्रभु अबिनासी रहिआ भरपूरि ॥ जनु नानकु गावै देखि हदूरि ॥४॥३॥
☬ हिंदी में अर्थ :- ☬
हे सहेली! वह जीव-स्त्री प्रशंसा-योग्य है, सुहाग-भाग्य वाली है, जो प्रभू-पती के साथ साँझ बनाती है, जो अहंकार छोड़ कर प्रभू-पती का हुक्म मानती रहती है। वह जीव-स्त्री प्रभू-पती (के प्यार-रंग) में रंगी हुई उस के मिलाप का आतमिक आनंद मानती रहती है ॥१॥ हे सहेली! परमात्मा को मिलने की निशानी (मुझसे) सुन ले। (वह निशानी वह तरीका यह है कि) लोग-लाज की खातिर काम करने छोड़ कर अपना मन अपना शरीर परमात्मा के हवाले कर दे ॥१॥ रहाउ ॥ (एक सत्संगी) सहेली (दूसरी सत्संगी) सहेली को (प्रभू-पती के मिलाप के तरीके के बारे में) समझाती है (और कहती है कि) जो जीव-स्त्री वही सब कुछ करती है जो प्रभू-पती को पसंद आ जाता है, वह सुहाग-भाग्य वाली जीव-स्त्री उस प्रभू के चरणों में लीन रहती है ॥२॥ (परन्तु) जो जीव-स्त्री अहंकार में फंसी रहती है, वह प्रभू-पती के चरणों में स्थान प्राप्त नहीं कर सकती। जब (जिंदगी की) रात बीत जाती है, तब वह पछताती है। अपने ही मन के पीछे चलने वाली वह मंद-भाग्यण जीव-स्त्री सदा दुख सहती रहती है ॥३॥ हे भाई! (लोग-लाज की खातिर मैं तो ही परमात्मा के द्वार पर) अरदास करू, अगर मैं उस को कहीं दूर वसता समझूं। वह नाश-रहित परमात्मा तो हर जगह व्यापक है। दास नानक जी (तो उस को अपने) अंग-संग (वसता) देख कर उस की सिफ़त-सलाह करते हैं ॥४॥३॥