🙏🌹 हुकमनामा श्री हरमंदिर साहिब अमृतसर 🙏🌹
आसा महला ४ छंत ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥ ता की गति कही न जाई अमिति वडिआई मेरा गोविंदु अलख अपार जीउ ॥ गोविंदु अलख अपारु अपर्मपरु आपु आपणा जाणै ॥ किआ इह जंत विचारे कहीअहि जो तुधु आखि वखाणै ॥ जिस नो नदरि करहि तूं अपणी सो गुरमुखि करे वीचारु जीउ ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥१॥ {पन्ना 448}
पद्अर्थ: अगम = अपहुँच। अगोचरु = (गो = ज्ञानेन्द्रियां) ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे। आदि = सबसे आरम्भ। निरंजनु = (निर+अंजनु) जिसे माया की कालिख नहीं लग सकती। निरंकारु = (निर+आकार) जिसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता। गति = हालत। अमिति = ना गिनी जाने वाली। अलख = जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। अपरंपरु = परे से परे बेअंत। कहीअहि = कहे जाएं।1।
जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘नो’ संबधक के कारण हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा गोबिंद (सबसे) बड़ा है (किसी भी समझदारी से उस तक मनुष्य की) पहुँच नहीं हो सकती, वह ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, (सारे जगत का) मूल है, उसे माया की कालिख नहीं लग सकती, उसकी कोई खास शक्ल नहीं बताई जा सकती। (हे भाई!) ये नहीं बताया जा सकता कि परमात्मा कैसा है, उसका बड़प्पन भी पैमायश से परे है (हे भाई!) मेरा वह गोबिंद बयान से बाहर है बेअंत है। परे से परे है, अपने आप को वह ही जानता है। इन जीव विचारों की भी क्या बिसात (कि वे उसका रूप बता सकें) ?
(हे प्रभू! कोई भी ऐसा जीव नहीं है) जो तेरी हस्ती को बयान करके समझा सके। हे प्रभू! जिस मनुष्य पर तू अपनी मेहर की निगाह करता है, वह गुरू की शरण पड़ कर (तेरे गुणों की) विचार करता है।
(हे भाई!) मेरा गोबिंद (सबसे) बड़ा है (किसी भी समझदारी से उस तक मनुष्य की) पहुँच नहीं हो सकती, वह ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, (सारे जगत का) मूल है, उसे माया की कालिख नहीं लग सकती, उसकी कोई खास शक्ल नहीं बताई जा सकती।1।
तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥ तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥ घट अंतरि पारब्रहमु परमेसरु ता का अंतु न पाइआ ॥ तिसु रूपु न रेख अदिसटु अगोचरु गुरमुखि अलखु लखाइआ ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती सहजे नामि समाइ जीउ ॥ तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥२॥ {पन्ना 448}
पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। करता = सृजनहार। पारु = परला छोर। घट = शरीर। निरंतरि = बिना दूरी के। (अंतर = दूरी, असमीपता)। अंतरि = अंदर में। रेख = चिन्ह चक्र (रेखा, लकीर)। अदिसटु = ना दिखने वाला। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। अनंदि = आनंद में। सहजे = आत्मिक अडोलता में, सहजि ही।2।
अर्थ: हे प्रभू! तू सारे जगत का मूल है और सर्व-व्यापक है, तू परे से परे है और सारी रचना का रचनहार है। तेरी हस्ती का दूसरा छोर (किसी को) नहीं मिल सकता। तू हरेक शरीर में मौजूद है, तू एक-रस सब में समा रहा है।
हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर हरेक शरीर के अंदर मौजूद है उसके गुणों का अंत (कोई जीव) नहीं पा सकता। उस प्रभू का कोई खास रूप, कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं बयान किया जा सकता। वह प्रभू (इन आँखों से) दिखता नहीं वह ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, गुरू के द्वारा ही ये समझ पड़ती है कि उस परमात्मा का स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह) दिन-रात हर समय आत्मिक आनंद में मगन रहता है, परमात्मा के नाम में लीन रहता है।
हे प्रभू! तू सारे जगत का मूल है और सर्व-व्यापक है, तू परे से परे है और सारी रचना का रचनहार है। तेरी हस्ती का दूसरा छोर (किसी को) नहीं मिल सकता।2।
तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥ हरि हरि प्रभु एको अवरु न कोई तूं आपे पुरखु सुजानु जीउ ॥ पुरखु सुजानु तूं परधानु तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तेरा सबदु सभु तूंहै वरतहि तूं आपे करहि सु होई ॥ हरि सभ महि रविआ एको सोई गुरमुखि लखिआ हरि नामु जीउ ॥ तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥३॥ {पन्ना 448}
पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। परमेसरु = परम+ईश्वर, सबसे बड़ा हाकिम। अबिनासी = कभी ना नाश होने वाला। गुण निधानु = (सारे) गुणों का खजाना। पुरखु = सर्व व्यापक। सुजानु = सयाना। परधानु = जाना माना। सबदु = हुकम। सभु = हर जगह। तूं है = तू ही। वरतहि = मौजूद है। रविआ = व्यापक है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। लखिआ = समझा जाता है।3।
अर्थ: हे प्रभू! तू सदा कायम रहने वाला है तू सबसे बड़ा है, तू कभी भी नाश होने वाला नहीं है, तू सारे गुणों का खजाना है। हे हरी! तू ही ऐकमेव मालिक है, तेरे बराबर का और कोई नहीं है तू स्वयं ही सबके अंदर मौजूद है, तू स्वयं ही सबके दिल की जानने वाला है। हे हरी! तू सब में व्यापक है, तू घट-घट की जानने वाला है, तू सबसे शिरोमणी है, तेरे जितना और कोई नहीं है। हर जगह तेरा ही हुकम चल रहा है, हर जगह तू ही तू मौजूद है, जगत में वही होता है जो तू स्वयं ही करता है।
हे भाई! सारी सृष्टि में एक वह परमात्मा ही रम रहा है, गुरू की शरण पड़ के उस परमात्मा के नाम की समझ पड़ती है।
हे प्रभू! तू सदा कायम रहने वाला है तू सबसे बड़ा है, तू कभी भी नाश होने वाला नहीं है, तू सारे गुणों का खजाना है।3।
सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावहि सभ तेरै सबदि समाइ जीउ ॥ सभ सबदि समावै जां तुधु भावै तेरै सबदि वडिआई ॥ गुरमुखि बुधि पाईऐ आपु गवाईऐ सबदे रहिआ समाई ॥ तेरा सबदु अगोचरु गुरमुखि पाईऐ नानक नामि समाइ जीउ ॥ सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥४॥७॥१४॥ {पन्ना 448}
पद्अर्थ: सभु = हर जगह। करता = हे करतार! वडिआई = बुर्जुगी, बड़प्पन, तेज प्रताप। भावै = अच्छा लगे। चलाइ = चाल। सभ = सारी दुनिया। सबदि = हुकम में। समाइ = लीन रहती है, अनुसार हो के चलती है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। आपु = स्वै भाव। सबदे = गुरू के शबद द्वारा। अगोचरु = जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच न