प्रेम होता ही अतिवादी है। यह बात प्रौढ़ होकर ही समझ में आती है उसके कि विधाता अमूमन इतना अतिवाद पसंद करता नहीं। खैर, सयाना-समझदार होकर प्यार, प्यार कहाँ रह पाता है!
तुम्हारा उदेश्य किसी दूसरे से अच्छा होना नहीं बल्कि जैसे तुम पहले थे उससे अच्छा होना, होना चाहिए।