अयोध्या में जन्मभूमि स्थल पर नवनिर्मित श्रीराम मंदिर में प्रभु रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा कराने वाली कर्मकांडी दल के प्रमुख आचार्य महान वैदिक विद्वान पं. लक्ष्मीकांत दीक्षित बैकुंठवासी हो गए। शनिवार की सुबह सात बजे उन्होंने मंगला गौरी मंदिर के पास स्थित अपने आवास पर नश्वर शरीर का त्याग कर दिया।
उनके निधन का समाचार फैलते ही काशी के विद्वत समाज व आध्यात्मिक, धार्मिक क्षेत्रों में शोक की लहर दौड़ गई। वह 82 वर्ष के थे तथा अपना कार्य स्वयं करते थे। आचार्य दीक्षित का अंतिम संस्कार महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर दाेपहर एक बजे विधि-विधानपूर्वक वैदिक रीति-रिवाज से किया गया। मुखाग्नि उनके ज्येष्ठ पुत्र जयकृष्ण दीक्षित ने दी।
उनकी अंतिम यात्रा आवास से जब सुबह 11 बजे चली तो सैकड़ों की संख्या में विद्वत जन, उनके शिष्य, अनेक राजनीतिक दलों के नेता, क्षेत्रीय नागरिक, विधायक डा. नीलकंठ तिवारी, मंडलायुक्त कमिश्नर कौशल राज शर्मा, पं. गणेश्वर शास्त्री द्रविड़, पं. विश्वेश्वर शास्त्री, प्रो. पतंजलि मिश्र, संतोष सोलापुरकर, नलिन नयन मिश्र, पार्षद कनकलता मिश्र आदि के साथ मराठा समाज के लोग प्रमुख रूप से सम्मिलित थे।
स्वजनों ने बताया कि मंगला गौरी मंदिर के पास स्थित अपने आवास के स्नानगृह में सुबह सात बजे वह स्नान कर रहे थे कि तभी अचानक गिर पड़े और जब तक लोग संभालते, हृदयगति रुकने से उनका निधन हो गया। आचार्य लक्ष्मीकांत दीक्षित का पूरा नाम वे. मूल लक्ष्मीकांत मथुरानाथ दीक्षित था।
इनके पूर्वज मूलत: महाराष्ट्र के निवासी थे। उनके पिता का नाम पं. मथुरानाथ दीक्षित व माता रुक्मिणीबाई दीक्षित था। उनका जन्म सन् 1942 में मुरादाबाद में हुआ था। शुक्ल यजुर्वेद शाखा व घनांत अध्ययन के लिए वह काशी आ गए। हालांकि काशी में उनका परिवार पीढ़ियों से रहता था। श्रौत स्मार्त यागों का उन्होंने विशिष्ट अध्ययन किया था।
अपने गुरु व चाचा उद्भट विद्वान वे.मू.गणेश दीक्षित (जावजी भट्ट) व स्व. वे.मू. मंगलजी बादल से उन्होंने विभिन्न वेद-वेदांगों व उपनिषदों का विशद ज्ञान प्राप्त किया तथा शुक्ल यजुर्वेद का सांगोपांग अध्ययन किया। वह रामघाट स्थित सांगवेद महाविद्यालय में वरिष्ठ आचार्य थे। वर्तमान में देश-विदेश उनके सैकड़ों शिष्य वेद तथा कर्मकांड के प्रचार-प्रसार में लगे हैं।